लोकतन्त्र की आड़ में पूंजीवादी खेल कैसे चलता है एक उदाहरण से समझते हैं ----- समाजवाद के नाम पर एक पब्लिक सैक्टर कंपनी बनाई जाती है उस पर सरकारी पूंजी और प्राकृतिक संसाधनों की बारिश कर दी जाती है और ज्ञान बांटा जाता है कि इस कंपनी का उद्देश्य लोगों को रोज़गार देना है ध्यान दें कंपनी का उद्देश्य मुनाफ़ा कमाना नहीं रोज़गार देना है अब धीरे-धीरे कंपनी ने नाम कमा लिया पूरा इनफ्रास्ट्रक्चर तैयार मार्केट में नाम जम गया अब बकरा हलाल होने को एकदम तैयार है मतलब ये कि अब ये पब्लिक सैक्टर निजी हाथों में बेच दिए जाने के लिए पूरी तरह से तैयार हो चुका है लेकिन ऐसे अचानक से तो कंपनी को बेचा नहीं जा सकता तो फिर कंपनी की तुलना निजी कंपनियों से होना शुरू होता है मीडिया का पैड न्यूज़ चालू हो जाता है कि देखो निजी कंपनी इतना मुनाफ़ा कमा रही है और सरकारी कंपनी इतना ठूँसने के बाद भी ठीक से प्रॉफ़िट नहीं कमा रही नुकसान करवा रही है ये तो बोझ है फलाना ढेंकाना धीरे-धीरे आम जनता के दिमाग में भी बैठ जाता है कि वाकई सरकारी कर्मचारी तो निकम्मे ही होते हैं ----- अब इसके बाद सरकार उस कंपनी को modernize कर